Friday, 13 September 2013

यदुवँशी क्षत्रियो के व्रष्णि,अन्धक व भोज ओर कुकुर यादव संघ

मधु राजा के सौ पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र एक यादवराज था। इसी के कुल में श्री कृष्ण पैदा हुए थे और इसी कारण वार्ष्णेय कहलाए। इनका वंश वृष्णि वंशीय यादव कहलाता था। ये लोग द्वारिका में निवास करते थे। प्रभास क्षेत्र में यादवों के गृह कलह में यह वंश भी समाप्त हो गया। वृष्णि गणराज्य शूरसेन प्रदेश में स्थित था।वृष्णियो का तथा अंधकों का प्राचीन साहित्य में साथ साथ उल्लेख है।पाणिनि में वृष्णियों तथा अंधको का उल्लेख हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कुकुर व वृष्णियों के संघ-राज्य का वर्णन है। महाभारत में अंधक वृष्णियों का कृष्ण के संबंध में वर्णन है। इसी प्रसंग में कृष्ण को संघ मुख्य भी कहा गया है जिससे सूचित होता है कि वृष्णि तथा अंधक गण जातियों के राज्य थे।
वृष्णि राजज्ञागणस्य भुभरस्य।यह सिक्का वृष्णि-गणराज्य द्वारा प्रचलित किया गया था और इसकी तिथि प्रथम या द्वितीय शती ई.पू. है। अंधक एवं वृष्णि संघ सम्भवतः यदुवंशियों के राजा भीम सात्वत के पुत्रों के नाम पर बने थे।कृष्ण वृष्णि थे एवं उग्रसेन और कंस अंधक थे ।
मथुरा में तीर्थंकर नेमिनाथ भी अंधक कहे गये हैं।कुछ ग्रंथों में कृष्ण को अंधक भी कहा गया है। मथुरा अंधक संघ की राजधानी थी और द्वारिका वृष्णियो की।
सुर्यवँशी श्री राम के पश्चात जब अयोध्या की गद्दी पर कुश थे और लव युवराज थे तब मथुरा में भीम के पुत्र अंधक राज्य करते थे । उनके बाद अंधक वंशियों का मथुरा पर अधिकार रहा था जो उग्रसेन और उनके पुत्र कंस तक कायम रहा था।
भीम के दूसरे पुत्र का नाम वृष्णि था।उनके वंश में उत्पन्न शूर ने शौरपुर (वर्तमान बटेश्वर) बसा कर अपना पृथक् राज्य स्थापित किया था।शूर के पुत्र वसुदेव हुए जिनके पुत्र बलराम तथा श्रीकृष्ण थे ।
वैदिक पुराण साहित्यो में उत्तरी पांचाल के पौरव राजा दिवोदास और उनके वंशज सुदास की विजय गाथाओं का उल्लेख मिलता है।सुदास ने हस्तिनापुर के पौरव राजा संवरण को उनके नौ साथी राजाओं की विशाल सेना सहित पराजित किया था।दस राजाओं के उस भीषण संघर्ष को प्राचीन वाग्मय में दाशराज्ञ युद्ध कहा गया है। वीरवर सुदास से पराजित होने वाले उन नौ राजाओं में एक यादव नरेश भी था।
यदुवँशियो के अंधक वृष्णि संघकी कार्यप्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक वृष्णि संघ काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था।इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था तथा चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था।ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये।प्रत्येक दल अब अपना राजनीतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा।इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी।एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था।जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है।उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे।महाभारत के शांति पर्व के 82 वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन श्रीकृष्ण और नारद के बीच संवाद के रूप में दिया गया हैँ।

श्री कृष्णदत्त वाजपेयी का अनुमान है कि यादव राजा भीम सात्वत का पुत्र अंधक रहा होगा जो सुदास के समय यादवों की मुख्य शाखा का अधिपती और शूरसेन जनपद के तत्कालीन गणराज्य का अध्यक्ष था।वह संभवत: अपने पिता भीम के समान वीर नहीं था।अंधक के वंश में कुकुर हुआ था।कुकुर की कई पीढ़ी बाद आहुक हुआ जिसके दो पुत्र उग्रसेन और देवक हुए थे।उग्रसेन का पुत्र कंस था और देवक की पुत्री देवकीथी।उग्रसेन, देवक और कंस अपने पूर्वज अंधक और कुकुर के नाम पर अंधक वंशीय अथवा कुकुर वंशीय कहलाते थे।
अंधक के भाई वृष्णि के दो पुत्र हुए जिनके नाम देवमीढूष और युधाजित थे।देवमीढूष के पुत्र श्र्वफल्क और उनके पुत्र अक्रूर थे।वृष्णि के वंशज वाष्णि वंशीय अथवा वार्ष्णेय कहलाते थे।
अंधक और वृष्णि वंशिय द्वारा शासित शूरसेन प्रदेशांतर्गत मथुरा और शौरिपुर के दोनों राज्य गणराज्य थे।उनका शासन वंश परम्परागत न होकर समय-समय पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा होता था।वे प्रतिनिधि अपने अपने गणों के मुखिया होते थे और राजा कहलाते थे।
महाभारत युद्ध से पूर्व उन दोनों राज्यों का संघ था जो कि अंधक-वृष्णि संघ' कहलाता था।उस संघ में अंधकों के मुखिया आहुक पुत्र उग्रसेन थे और वृष्णियों के शूरसेन पुत्र वसुदेव थे।उस संघीय गण राज्य का राष्ट्रपति उग्रसेन था।इस संघ राज्य के केंद्र मन्त्रियों में एक उद्धव भी थे।उग्रसेन की भतीजी देवकी का विवाह वसुदेव के साथ हुआ था जिनके पुत्र भगवान कृष्ण थे।उग्रसेन के पुत्र कंस का विवाह उस काल के सर्वाधिक शक्तिशाली मगध साम्राज्य के अधिपति जरासंध की दो पुत्रियों के साथ हुआ था।वसुदेव की बहिन कुन्ती का विवाह कुरु प्रदेश के प्रतापी महाराजा पांडु के साथ हुआ था जिनके पुत्र सुप्रसिद्ध पांडव थे। वसुदेव की दूसरी बहिन श्रुतश्रवा हैहयवंशी चेदिराज दमघोष को ब्याही गयी थी जिसका पुत्र शिशुपाल था।इस प्रकार शूरसेन प्रदेश के यदुवँशियो का पारिवारिक संबंध भारतवर्ष के कई विख्यात राज्यों के अधिपतियों के साथ था।उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा शूरवीर और महत्त्वाकांक्षी युवक था । फिर उन्हें अपने श्वसुर जरासंध के अपार सैन्य बल का भी अभिमान था।वह गणतंत्र की अपेक्षा राजतंत्र में विश्वास रखता था। उन्होंने अपने साथियों के साथ संघ राज्य के विरुद्ध कर उपद्रव करना आरम्भ किया।अपनी वीरता और अपने श्वसुर की सहायता से उन्होंने अपने पिता उग्रसेन और बहनोई वसुदेव को शासनाधिकार से वंचित कर उन्हें कारागृह में बन्द कर दिया और आप स्वयँ अंधक-वृष्णि संघ का स्वेच्छाचारी राजा बन गया था।वह यदुवँशियो से घृणा करता था और अपने को यदुवँशी मानने में लज्जित होता था।उसने मदांध होकर प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये थे।अंत में श्री कृष्ण द्वारा उनका अंत हुआ था।
साभार टिप्पणी और संदर्भ 1.पाणिनि 4,1,114 तथा 6,2,34 2.पृ0 12 3.'यादवा: कुकुरा भोजा: सर्वे चान्धकवृष्णय:, त्वय्यासक्ता: महाबाहो लोकालोकेश्वराश्च ये।'महाभारत शांति0 81,29 4 'भेदाद् विनाश: संघानां संघमुख्योऽसि केशव' शाति0 81,25 । 5.मजुमदार-कार्पोरेअ लाइफ इन ऐंशेंट इंडिया–पृ0 280

यदुवँश एक परिचय


  • महाराजा यदु एक चंद्रवंशी राजा थे। सोमवँश सिरोमणी सम्राट ययाति के पुत्र थे 
    यदु कुल के प्रथम सदस्य माने जाते हैं।उनके वंशज जो कि यादव के नाम से जाने जाते हैं यदुवंशी के नाम से भी जाने जाते हैं। और भारत एवं निकटवर्ती देशों पाकिस्तान व अफगानिस्तान में काफी संख्या में पाये जाते हैं। उनके वंशजो में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं पौराणिक ग्रन्थ महाभारत के महानायक भगवान श्री कृष्णा महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जायगा। इस वंश में स्वयं परमपुज्य भगवान श्री विष्णु ने क्रष्णा के रुप मे मनुष्य अवतार लिया था।
    महाराज यदुकुल शिरोमणि की वँशावली पर चर्चा करते हैँ।
    यदु के चार पुत्र थे- 1.सहस्त्रजित 2.क्रोष्टा 3.नल और 4.रिपुं
    1.सहस्त्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे- 1.महाहय 2.वेणुहय और 3.हैहय ईनही से एक अलग वँश हैहयवँश चला।हैहय का धर्म,धर्म का नेत्र,नेत्र का कुन्ति,कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।
    हैहयपति महाराज भद्रसेन के दो पुत्र थे- 1.दुर्मद और 2.धनक।
    धनक के चार पुत्र हुए- 1.कृतवीर्य, 2.कृताग्नि, 3.कृतवर्मा व 4.कृतौजा। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। जिन्हे हैहयराज क्रतवीर्य अर्जुन के नाम से जाना जाता हैँ।वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट था।उसने भगवान के अंशावतार श्री दत्तात्रेयजी से योगविद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट यज्ञ,दान,तपस्या,योग, शास्त्रज्ञान,पराक्रम और विजय आदि गुणों में कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।सहस्त्रबाहु अर्जुन पचासों हज़ार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा।उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है।उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था।उसके हज़ारों पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये।
    अर्जुन के बचे हुए पुत्रों के नाम थे- 1.जयध्वज 2.शूरसेन 3.वृषभ 4.मधु और 5.ऊर्जित।
    अर्जुन के पुत्र जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे 'तालजंघ' नामक क्षत्रिय कहलाये।महर्षि और्व की शक्ति से सुर्यवँशी राजा सगर ने उनका संहार कर डाला।उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
    यदुनन्दन पुत्र क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रूशेकु,रूशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु वह परम योगी महान भोगैश्वर्य सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।परम यशस्वी शशबिन्दु के दस हज़ार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक एक के लाख लाख सन्तान हुई थीं।इस प्रकार उसके सौ करोड़ एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छ: पुत्र प्रधान थे।पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म।धर्म का पुत्र उशना हुआ।उसने सौ अश्वमेध यज्ञकिये थे।उशना का पुत्र हुआ रूचक।रूचक के पाँच पुत्र हुए उनके नाम थे-1.पुरूजित,2.रूक्म, 3.रूक्मेषु,4.पृथु और 5.ज्यामघ।
    ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान हुई। परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्य नाम की कन्या हर लाया।जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली कपटी मेरी बैठने की जगह पर आज किसे बैठा कर लिये आ रहे हो ज्यामघ ने कहायह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।शैब्या ने मुस्कुराकर अपने पति से कहा।मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है।ज्यामघ ने कहा रानी तुम को जो पुत्र होगा उसकी यह पत्नी बनेगी। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया।फिर क्या था समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भराज।उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया