Sunday, 11 August 2013

अदीति जिनसे देवताओं की उत्पति हुयी

देवमाता अदिति देवी का परिचय अदिति संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ 'असीम' है। दक्षप्रजापति की पुत्री थीं और कश्यप ॠषि को ब्याही थीं। अदिति को 'देवमाता' कहा गया है।मित्र- वरुण, आदित्य, रुद्र, इन्द्र आदि इन्हीं की संतान बताए गये हैं। आधुनिक दृष्टि से देखें तो अंतरिक्ष से इनका बोध होता है जिसमें सभी आदित्य भ्रमण किया करते हैं। पौराणिक कथाओ मे देवमाता अदिति पौराणिक कथाओं के वैदिक युग में असीम या अनंत का मानवीकृत रूप और आदित्य नामक स्वर्ण के देवताओं के समूह की माता आदिम देवी के रूप में इन्हें विष्णु सहित कई देवताओं की जननी माना गया है। अदिति आकाश को अवलंब प्रदान करती हैं। सभी जीवों का पालन और पृथ्वी का पोषण करती हैं। इस रूप में इन्हें कभी कभी गाय के रूप में भी दर्शाया जाता है।
 
देवमाता अदिति के पुत्र आमतौर पर उनके पुत्र आदित्यों की संख्या 12 बताई जाती है। वरुण इनमें प्रमुख हैं। और उनकी ही तरह उन्हें ऋतु (दैवी श्रेणी) का रक्षक माना जाता है। एक श्लोक में उनके नाम वरुण,मित्र आर्यमन, दक्ष, भग और अंश बताए गए हैं। इनमें से कई बार दक्ष को हटाकर इन्द्र, सवितृ ( सूर्य) और धातृ को शामिल कर लिया जाता है। कभी-कभी इस शब्द के व्यापक अर्थ में सभी देवताओं को शामिल कर लिया जाता है। जहाँ आदित्यों की संख्या 12 मानी गई है। वहाँ उन्हें वर्ष के 12 सौर महीनों से जोड़ा जाता है। एकवचन के रूप में आदित्य, सूर्य का एक नाम है। वेदों में देवमाता अदिति वेद में अदिति को सीमाहीन बताया गया है। पुराण तो आकाश, वायु, माता, पिता, सर्व देवता,सर्व मानव, भूत, वर्तमान, भविष्य सब कुछ अदिति को ही बताते हैं। कश्यप ॠषि की दो पत्नियाँ थीं- अदिति और दिति। अदिति के गर्भ से देवता और दिति के गर्भ से दैत्य उत्पन्न हुए। श्रीकृष्ण की माता देवकी को 'अदिति का अवतार' बताया जाता हैं।
 

श्री कृष्णा का अवतार

पहली रानी मदिषा के गर्भ से शूर उत्पन्न हुए| शूर की पत्नी भोज राजकुमारी से दस पुत्र तथा पांच पुत्रियाँ उत्पन्न हूई जिनके नाम नीचे नाम नीचे लिखे गए है| उनके नामो के आगे उनसे उत्पन्न प्रसिद्द पुत्रो के नाम भी लिखे गए है:- १. वासुदेव..वासुदेव -से श्रीकृष्ण और बलराम २. देवभाग.. देवभाग-से उद्धव नामक पुत्र ३. देवश्रवा.. देवश्रवा-से शत्रुघ्न(एकलव्य) नामक पुत्र ४. अनाधृष्टि.. अनाधृष्टि-से यशस्वी नामक पुत्र हुआ ५. कनवक.. कनवक -से तन्द्रिज और तन्द्रिपाल नामक दो पुत्र ६. वत्सावान.. वत्सावान-के गोद लिए पुत्र कौशिक थे. ७. गृज्जिम.. गृज्जिम- से वीर और अश्वहन नामक दो पुत्र हुए ८. श्याम.. श्याम -अपने छोटे भाई शमीक को पुत्र मानते थे| ९. शमीक-के कोइ संतान नही थी। १०. गंडूष.. गंडूष -के गोद लिए हुए चार पुत्र थे. इनके अतिरिक्त शूर के पांच कन्याए भी उत्पन्न हुई थी जिनके नाम नीचे लिखे है| उनके नामो के आगे उनसे उत्पन्न प्रसिद्द पुत्रो के नाम भी लिखे गए है:- १. पृथु की.. पृथुकी -से दन्तवक्र नामक पुत्र २. पृथा (कुंती) .. पृथा (कुंती)- से युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन नामक तीन पुत्र ३. श्रुतदेवा.. श्रुतदेवा - से जगृहु नामक पुत्र ४. श्रुतश्रवा.. श्रुतश्रवा - से चेदिवंशी शिशुपाल नामक पुत्र ५. राजाधिदेवीराजाधिदेवी - से विन्द और अनुविन्द नामक दो पुत्र हुए।
देविमूढस (देवमीढ़)की दूसरी रानी वैश्यवर्णा से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ| पर्जन्य के नौ पुत्र हुए जिनके नाम इस प्रकार है:- १.धरानन्द २. ध्रुवनन्द ३. उपनंद ४. अभिनंद ५. सुनंद ६. कर्मानन्द ७. धर्मानंद ८. नन्द .९. वल्लभ इसे यों समझे: (इस वँशावली में कुछ नाम छोड़ दिए गए है जिनके बारे मे ज्यादा पता नही होने के कारण आपके सुझाव आमत्रिँत हैँ केवल महत्वपूर्ण नामो के उल्लेख के लिए) बाकि के नाम ईस प्रकार है:- देवमीढ कीदो रानिया १-मदिषा २-वैश्यवर्णा से शूरसेन से पर्जन्य से वसुदेव..देवभाग....पृथा...श्रुतश्रवा-------------------धरानन्द...ध्रुव...उप...अभि...सुनन्द ..v.........v..........v.......--.--.--.-.-....................--कर्मा...धर्मा...नन्द...बल्लभ् ..से .......से ......से ......से.. श्रीकृष्ण...उद्धव..पाण्डव..शिशुपाल । प्रदुम्न । अनिरुद्ध । ब्रजनाभि
श्रीकृष्ण आठ भाई थे| उनके नाम इस प्रकार है:- १.कीर्तिमान २.सुषेण ३.भद्रसेन ४.भृगु ५.सम्भवर्दन ६.भद्र ७.बलभद्र और ८. श्रीकृष्ण| इनमे से माता देवकी के छः पुत्रो को कंस ने जन्म के तुरंत बाद मार दिया था| अन्धकवंशी मथुरा के तथा वृष्णिवंशी द्वारिकापुरी के शासक हुए| मथुरा में जिस समय उग्रसेन और कंस थे उस समय द्वारिका में शूर के पुत्र वासुदेव जी राजा थे|

व्रष्णी वंश जिससे श्री कृष्णा का अवतार हुआ


सात्वत के  पुत्रो से जो  वंश परंपरा चली उनमें  सर्वाधिक  विख्यात  वंश का नाम है  वृष्णि-वंश था। इसमें सर्वव्यापी भगवान श्री कृष्ण  ने अवतार लिया था जिससे यह वंश  परम पवित्र हो गया। वृष्णि  के दो रानियाँ थी -एक नाम था  गांधारी और दूसरी  का माद्री। माद्री के एक देवमीढुष नामक एक पुत्र हुआ।  देवमीढुष के भी मदिषा और वैश्यवर्णा नाम की  दो रानियाँ थी। देवमीढुष की बड़ी रानी मदिषा के गर्भ  दस पुत्र हुए,  उनके  नाम थे -वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सुजग्य, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। उनमें वसुदेव जी सबसे बड़े थे।    वसुदेव के जन्म के समय देवताओं  ने प्रसन्न होकर आकाश से पुष्प की वर्षाकी थी और आनक तथा  दुन्दुभी का वादन किया था। इस कारण  वसुदेव जी को आनकदुन्दु भी कहा जाता है। श्रीहरिवंश पुराण में  वसुदेव के  चौदह पत्नियों होने का वर्णन आता है उनमें रोहिणी, इंदिरा, वैशाखी, भद्रा और सुनाम्नी नामक पांच पत्नियाँ पौरव वंश से,  देवकी आदि  सात पत्नियाँ अन्धक वंश से तथा  सुतनु  तथा  वडवा नामक, वासूदेव की देखभाल करने वाली,दो स्त्रियाँ अज्ञात अन्यवंश से थीं।

 

उग्रसेन के बड़े भाई  देवक के देवकी सहित सात कन्यायें थी। उन सबका  विवाह वसुदेव जी  से हुआ था। देवक की छोटी कन्या देवकी के  विवाहोपरांत उसका चचेरा भाई कंस जब   रथ में बैठा कर उन्हें घर छोड़ने जा रहा था तो  मार्ग में उसे आकाशवाणी से यह शब्द सुनाई पडे -हे कंस तू  जिसे इतने प्यार से ससुराल पहुँचाने जा रहा है उसी  के आठवे पुत्र के हाथों तेरी मृत्यु होगी।देववाणी सुनकर कंस अत्यंत भयभीत हो गया और वसुदेव तथा  देवकी को कारागार  में बंद  कर दिया।महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण का जन्म इसी कारागार में हुआ था।  भगवान श्रीकृष्ण ने देवकी के गर्भ से अवतार लिया और वसुदेव जी को  भगवान श्रीकृष्ण के पिता होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ।वसुदेव के एक पुत्र का नाम बलराम था। बलराम जी श्रीकृष्ण के  बड़े भाई थे। उनका जन्म वसुदेव की एक अन्य पत्नी रोहिणी  के गर्भ से हुआ था।रोहिणी गोकुल में वसुदेव के चचेरे भाई नन्द के यहाँ गुप्त रूप से रह रही थी। श्रीकृष्ण और बलराम की विस्तृत जीवनी आपको आगे  कही पर वर्णित करेँगे। देवमीढुष की दूसरी रानी वैश्यवर्णा के गर्भ से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ। पर्जन्य के नन्द सहित नौ  पुत्र हुए उनके नाम थे - धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद, अभिनंद,  .सुनंद, कर्मानन्द , धर्मानंद , नन्द और वल्लभ।  नन्द से  नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। नन्द और उनकी पत्नी यशोदा  ने गोकुल में  भगवान श्रीकृष्ण का   पालन-पोषण किया। इस  कारण  वह आज भी  परम यशस्वी और श्रद्धेय हैं। वृष्णिवंश की  इस वंशावली से ज्ञात होता है कि  वसुदेव और नन्द वृष्णि-वंशी यादव थे और दोनों चचेरे भाई थे।

यादवो ने कालान्तर मे अपने केन्द्र दशार्न, अवान्ति, विदर्भ् एवं महिष्मती मे स्थापित कर लिए।बाद मे मथुरा और द्वारिका यादवो की शक्ति के महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली केन्द्र बने। इसके अतिरिक्त शाल्व मे भी यादवो की शाखा स्थापित हो गई।मथुरा महाराजा उग्रसेन के अधीन था और द्वारिका वसुदेव के। महाराजा उग्रसेन का पुत्र कंस था और वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण थे।

 

 

महाराज यदु से यदुवंश चला। यदुवंश मे यदु की कई पीढ़ियों के बाद भगवान् श्री कृष्ण माता देवकी के गर्भ से मानव रूप में अवतरित हुए। पुराण आदि से प्राप्त जानकारी के आधार पर सृष्टि उत्पत्ति से यदु तक और यदु से श्री कृष्ण के मध्य यदुवँश वन्शावली  इस प्रकार है:-

परमपिता नारायण

ब्रह्मा

अत्रि

चन्द्रमा

( चन्द्रमा से चद्र वंश चला)

बुध

पुरुरवा

आयु

नहुष

ययाति

यदु

(यदु से यदुवंश चला)

क्रोष्टु

वृजनीवन्त

स्वाहि (स्वाति)

रुषाद्धगु

चित्ररथ

शशविन्दु

पृथुश्रवस

अन्तर(उत्तर)

सुयग्य

उशनस

शिनेयु

मरुत्त

कन्वलवर्हिष

रुक्मकवच

परावृत्

ज्यामघ

विदर्भ्

कृत्भीम

कुन्ती

धृष्ट

निर्वृति

विदूरथ

दशाह

व्योमन

जीमूत

विकृति

भीमरथ

रथवर

दशरथ

येकादशरथ

शकुनि

करंभ

देवरात

देवक्षत्र

देवन

मधु

पुरूरवस

पुरुद्वन्त

जन्तु (अन्श)

सत्वन्तु

भीमसत्व

भीमसत्व के बाद यदवो की मुख्य दो शाखाए बन गयी

(1)-अन्धक ......और....(2)-बृष्णि

कुकुर......देविमूढस-(देविमूढस के दो रानिया थी)

धृष्ट .............................

कपोतरोपन......................

विलोमान........................

अनु................................

दुन्दुभि...........................

अभिजित.........................

पुनर्वसु.............................

आहुक..............................

उग्रसेन/देवक .....शूर

कन्स/देवकी ...वासुदेव

श्रीकृष्ण

ष्णि वंश

भीमसत्व के बाद यदुवँश राजवंशो की प्रधान शाखा से दो मुख्य शाखाए बन गई-पहला अन्धक वंश और दूसरा वृष्णि वंश अन्धक वंश में कंस का जन्म हुआ तथा वृष्णि वंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था

 

 

क्षत्रिय सम्राट यदु जिससे यादववंश की उत्पति हुयी

ययाति पुत्र यदु
यदुवंश के संस्थापक यदु महाराजा ययाति के पुत्र थे। उनका जन्म देवयानी के गर्भ से हुआ। यदु के वन्शज यदुवँशी कहलाए। महाराज ययाति के दो रानियाँ थी एक का नाम था देवयानी और दूसरी का शर्मिष्ठा । देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र तथा शर्मिष्टा के गर्भ से दुह्यु,अनु और पुरू नामक तीन पुत्र हुए।
ययाति के पुत्रो से जो वंशज चले वे इस प्रकार है- १.यदु से यदुवँश २.तुर्वसु से यवन ३.दुह्यु से भोज ४.अनु से म्लेक्ष ५ पुरु से पौरववँश।
यदु के नाना शुक्राचार्य ने उनके पिता ययाति को श्राप दे दिया था जिससे वे असमय भरी जवानी में वृद्ध हो गए।राजा अपने बुढ़ापे से बहुत दुखी था। यदि कोई उन्हें अपनी जवानी देकर उनका बुढ़ापा ले लेता तो वे पुनः जवान हो सकते थे।राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को जवानी देकर बुढ़ापा लेने को कहा। किन्तु यदु ने इंकार कर दिया।तब उन्होंने दुसरे पुत्र तुर्वसु को कहा तो उसने भी इंकार कर दिया। इसी प्रकार महाराज ययाति के तीसरे और चौथे पुत्र ने भी इंकार कर दिया। तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से पुछा तो वह सहर्ष जवानी के बदले बुढ़ापा लेने को सहमत हो गया। पुरु की जवानी प्राप्त कर ययाति पुनः तरुण हो गए। तरुणावस्था मिल जाने से वे बहुत काल तक यथावत विषयों को भोग करते रहे। उस समय की परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण पिता के सन्यास लेने के बाद सिंहासन का असली हकदार यदु था। किन्तु यदु द्वारा अपनी जवानी न दिये जाने के कारण महाराजा ययाति उससे रुष्ट हो गये थे।इसलिये यदु को राज्य नही दिया। वे अपने छोटे बेटे पुरू को बहुत चाहते थे और उसी को राज्य देना चाहते थे। राजा के सभासदो ने जयेष्ठ पुत्र के रहते इस कार्य का विरोध किया।किन्तु यदु ने अपने छोटे भाई का समर्थन किया और स्वयँ राज्य लेने से इन्कार कर दिया और । इस प्रकार ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक बनाया।अन्य पुत्रों को दूर-दराज के छोटे छोटे प्रदेश सौंप दिये।
यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती वर्तमान मथुरा का क्षेत्र व चम्बल का तटवर्ती प्रदेश मिला।वह अपने सब भाइयो मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ था। श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र हुए जिनके नाम सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया।
यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के एक पौत्र का नाम था हैहय। हैहय के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाए। हैहय के हजारों पुत्र थे। उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे बाकी सब युद्ध करते हुए परशुराम के हाथों मारे गए।बचे हुए पुत्रों के नाम थे-जयध्वज, शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित। जयध्वज के तालजंघ नामक एक पुत्र था। तालजंघ के वंशज तालजंघ क्षत्रिय कहलाये। तालजंघ के भी सौ पुत्र थे उनमें से अधिकांश को सुर्यवँशी राजा सागर ने मार डाला था। तालजंघ के जीवित बचे पुत्रों में एक का नाम था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र के मधु नामक एक पुत्र हुआ। मधु के वंशज माधव कहलाये। मधु के कई पुत्र थे। उनमें से एक का नाम था वृष्णि । वृष्णि के वंशज वाष्र्णेव कहलाये।
हैहय वंश का विस्तृत परिचय इस पोस्य पर ना करके किसी अन्य पोस्ट पर उल्लेखित करेगे।
यदु के दुसरे पुत्र का नाम क्रोष्टा था। क्रोष्टा के बाद उसकी बारहवीं पीढी में 'विदर्भ' नामक एक राजा हुए।
विदर्भ के कश, क्रथ और रोमपाद नामक तीन पुत्र थे। विदर्भ के तीसरेवंशधर रोमपाद के पुत्र का नाम था बभ्रु।
बभ्रु के कृति, कृति के उशिक और उशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ।चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। इसी चेदिवंश में शिशुपाल आदि उत्पन्न हुए।
विदर्भ के दुसरे पुत्र क्रथ के कुल में आगे चल सात्वत नामक एक प्रतापी राजा हुए। उनके नाम पर यादवों को कई जगह सात्वतवंशी भी कहा गया है। सात्वत के सात पुत्र थे। उनके नाम थे -भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देववृक्ष, महाभोज और अन्धक। इनसे अलग अलग सात कुल चले।
उनमें से वृष्णि और अन्धक कुल के वंशज अन्य की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। वृष्णि के नाम पर वृष्णिवंश चला। इस वंश में लोक रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया और इस धरा पर सर्वाधिक विख्यात हुआ। श्रीकृष्ण की माता देवकी का जन्म अन्धक वंश में हुआ था।इस कारण अन्धक वंश ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की। अन्धक के वंशज अन्धकवंशी यादव कहलाये।अन्धक के कुकुर, भजमन, शुचि और कम्बलबर्हि नामक चार लड़के थे। इनमें से कुकुर के वंशज बहुत प्रसिद्द हुए। कुकुर के पुत्र का नाम था वह्नि । वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा और कपोतरोमा के अनु नामक पुत्र हुआ।अनु के पुत्र का नाम था अन्धक। अन्धक के पुत्र का नाम दुन्दुभि और दुन्दुभि के पुत्र का नाम था अरिद्योत। अरिद्योत के पुनर्वसु नाम का एक पुत्र हुआ। पुनर्वसु के दो संतानें थी- पहला आहुक नाम का पुत्र और दूसरा आहुकी नाम की कन्या। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए। देवक के देववान, उपदेव, सुदेव,देववर्धन नामकचार पुत्र तथा धृत, देवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी नामक चार कन्यायें थीं। आहुक के छोटे बेटे उग्रसेन के कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू,राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान नामक नौ पुत्र और कन्सा, कंसवती, कंका, शुरभु और राष्ट्र्पालिका नामक पाँच कन्यायें।

ययाति महान चन्द्रवंशी सम्राट

ययाति
ययाति राजा नहुष की रानी बिरजा के गर्भ से उत्पन्न पुत्र थे वे भारत के पहले चकर्वर्ती सम्राट हुये जिसने अपने राज्य का बहुत विस्तार किया॥ इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी इसलिए इनके पिता नहुष को अगस्तय मुनि आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया तथा इनके ज्येष्ठ भ्राता यति ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया।तब ययाति राजा के पद पर बैठे।उन्होंने अपने चारों छोटे भाइयों को चार दिशाओ में नियुक्त कर दिया और आप शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए।
देवयानी के गर्भ से महाराज ययाति के यदु नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ और यदु से यदुवंश चला। महाराज ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राह्मण पुत्री थी। यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ?
देवयानी और शर्मिष्ठा कौन थी?
इसका विवरण इस प्रकार है:- शर्मिष्ठा दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या थी। वह अति माननी अति सुंदर राजपुत्री थी।राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य दैत्यों के राजगुरु एवं पुरोहित थे।देवयानी उन्ही दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तथा शर्मिष्ठा की सखी थी। रूप-लावण्य में देवयानी शर्मिष्ठा से किसी प्रकार से कम न थी। देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों महाराज ययाति की पत्नियाँ थी। ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राहमण पुत्री थी तो यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ?
इस विषय में कहा जाता है कि एक दिन शर्मिष्ठा अपनी हजारो सखियों के साथ नगर के उपवन में टहल रही थी उनके साथ गुरु पुत्री देवयानी भी थी उस उपवन में सुंदर सुंदर सुहावने पुष्पों से लदे हुए अनेको वृक्ष थे उसमे एक सुंदर सरोवर भी था सरोवर में सुंदर सुंदर मनमोहक कमल खिले हुए थे उनपर भौरे मधुरता पूर्वक गुंजार कर रहे थे इस सरोवर पर पहुचने पर सभी कन्याओ ने अपने अपने वस्त्र उतारकर किनारे रख दिया और आपस में एक दूसरे पर जल छिड़कती हुई जलविहार करने लगी उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले तो भगवान शकँर को आता देख सभी कन्याये लज्जावश दौड़ कर अपने अपने वस्त्र पहनने लगी जल्दी में भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए इस पर देवयानी क्रोधित हो कर बोली ये शर्मिष्ठा तु एक असुर पुत्री होकर तुमने ब्रह्मण पुत्री के वस्त्र पहनने का साहस कैसे किया?
जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है बड़े-बड़े लोकपाल तथा देव इंद्र आदि जिनके चरणों की वंदना करते है उन्ही ब्राह्मणों में श्रेष्ट हम भृगुवंशी है मेरे वस्त्र धारण करके तूने मेरा अपमान किया है देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा तिलमिला गयी और क्रोधित होकर देवयानी को कहा ये भिखारिन आप तूने अपने आप को क्या समझा है? तुझे कुछ पता भी है कि नही है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ो के लिए ताकते रहते है उसी तरह तू अपने बाप के साथ मेरी रसोई की तरफ देखा करती है क्या मेरे ही दिए हुए टुकडो से तेरा शरीर नहीं पला?
यह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी के पहने हुए कपडे छीन कर उसे नंगी ही उपवन के एक कुएं में ढकेलवा दिया देवयानी को कुएं में ढकेलकर शर्मिष्ठा सखियों को लेकर घर चली आयी।
संयोगवश राजा ययाति उस समय वन में शिकार खेलने गए हुए थे और वे उधर से गुजर रहे थे उन्हें बड़ी प्यास लगी थी पानी की खोज करते हुए वे उसी कुएं के पास गए जिसमे देवयानी को धकेल दिया गया था उस समय वह कुए में नंगी खड़ी थी राजा ययाति ने उसे पहनने के लिए अपना दुपट्टा दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर कुएं से बहार निकाल लिया कुए से बहार निकलने पर देवयानी ने ययाति से कहा हे वीर जिस हाथ को तुमने पकड़ा है उसे अब कोइ दूसरा न पकडे। मेरा और आपका सम्बन्ध ईश्वरकृत है मनुष्यकृत नहीं निसंदेह मै बाह्मण पुत्री हूँ लेकिन मेरा पति ब्रह्मण नहीं हो सकता क्योकि वृहस्पति के पुत्र कच ने ऐसा श्राप दिया है कि देवयानी के ऐसा कहने पर राजा न चाहते हुए भी दैव की प्रेरणा से ययाति उसकी बात मान गए इसके बाद ययाति अपने घर चले गये उधर देवयानी रोती हुई अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था वह कह सुनाया पुत्री की दशा देख कर शुक्राचार्य का मन उचाट गया वे पुरोहिती की निंदा करते हुए तथा भिक्षा वृति को बुरी कहते हुए अपनी बेटी देवयानी को साथ लेकर नगर से बाहर चले गए यह समाचार जब वृषपर्वा ने सुना तो उनके मन में शंका हुई कि गुरूजी कही शत्रुओ से मिलकर उनकी जीत न करवा दे अथवा मुझे शाप न दे दें तो वो ऐसा विचार करके अपने पिता के साथ गुरूजी के पास आयी और मस्तक नवाकर पैरो में गिरकर क्षमा याचना किया तब शुक्राचार्य जी बोले हे राजन आप मेरी पुत्री देवयानी को मना लो वह जो कहे उसे पूरा करो वृषपर्वा ने कहा बहुत अच्छा तब देवयानी बोलीं मै पिता की आज्ञा से जिस पति के घर जाऊं अपनी सहेलियों के साथ आपकी पुत्री शर्मिष्ठा उसके यहाँ पर दासी बनकर रहे शर्मिष्ठा इस बात से बहुत दुखी हुई परन्तु यह सोच कर देवयानी की शर्त मान ली कि इससे मेरे पिता का बहुत काम सिद्ध होगा तब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति के साथ कर दिया एक हज़ार सहेलियों सहित शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर उसके घर भेज दिया समय बीतता गया देवयानी लगन के साथ पत्नी-धर्म का पालन करते हुए महाराज ययाति के साथ रहने लगी शर्मिष्ठा सहेलियों सहित दासी की भाति देवयानी की सेवा करने लगी।
शर्मिष्ठा राजा ययाति की पत्नी कैसे बनी?
आगे की पंक्तियों में इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है कुछ दिनों के बाद देवयानी पुत्रवती हो गई| देवयानी को संतान देख शर्मिष्ठा ने भी संतान प्राप्ति के उद्देश्य से राजा ययाति से एकांत में सहवास की याचना की| इस प्रकार की याचना को धर्म-संगत मानकर शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी उचित काल पर राजा ने शर्मिष्ठा से सहवास किया| इस प्रकार देवयानी से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए|
जब देवयानी को ज्ञात हुआ कि शर्मिष्ठा ने मेरे पति द्वारा गर्भ धारण किया था तो वह क्रुद्ध हो कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गयी| राजा ययाति भी उसके पीछे- पीछे गया| उसे वापस लाने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु देवयानी नही मानी| जब शुक्राचार्य को सारा वृतांत मालुम हुआ तो क्रोधित होकर बोले हे स्त्री लोलुप तू मंद बुद्धि और झूठा है| जा ओर मनुष्यों को कुरूप करने वाला तेरे शरीर में बुढ़ापा आ जाये| तब ययाति जी बोले हे ब्राह्मण श्रेष्ठ मेरा मन आपकी पुत्री के साथ सहवास करने से अभी तृप्त नहीं हुआ है|इस शाप से आपकी पुत्री का भी अनिष्ट होगा|मेरी पुत्री का अनिष्ट होगा ऐसा सोचकर बुढ़ापा दूर करने का उपाय बताते हुए शुक्राचार्य जी बोले जाओ यदि कोई प्रसन्नता से तेरे बुढ़ापे को लेकर अपनी जवानी दे दे तो उससे अपना बुढ़ापा बदल लो|
यह व्यवस्था पाकर राजा ययाति अपने राज महल वापस आए| बुढ़ापा बदलने के उद्देश्य से वे अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से बोले बेटा तुम अपनी तरुणावस्था मुझे दे दो तथा अपने नाना द्वारा शापित मेरा बुढ़ापा स्वीकार कर लो| तब यदु बोले पिताजी असमय आपकी वृद्धावस्था को मै लेना नहीं चाहता क्योकि बिना भोग भोगे मनुष्य की तृष्णा नहीं मिटती है|इसी तरह तुर्वसु,, दुह्यु और अनु ने भी अपनी जवानी देने से इन्कार कर दिया| तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से कहा हे पुत्र तुम अपने बड़े भाइयो की तरह मुझे निराश मत करना| पुरु ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार उनका बुढ़ापा लेकर अपनी जवनी दे दिया| पुत्र से तरुणावस्था पाकर राजा ययाति यथावत विषयों का सेवन करने लगे| इस प्रकार वे प्रजा का पालन करते हुए एक हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग भोगते रहे परन्तु भोगो से तृप्त न हो सके|
राजा ययाति का गृह त्याग
इस प्रकार स्त्री आसक्त रहकर विषयों का भोग करते हुए राजा ययाति ने देखा कि इन भोगो से मेरी आत्मा नष्ट हो गयी है। सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गयी है| तब वे वैराग्ययुक्त अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से कहने लगे हे प्रिय मेरी तरह आचरण करने वाले की मैं एक कथा कहता हूँ इसे ध्यान पूर्वक सुनना| पृथ्वी पर मेरे ही समान विषयी का यह सत्य इतिहास है| एक बकरा था| वह अकेला वन में अपने प्रिय पात्र को ढूंढता फिरता था| एक दिन उसने एक कुएं में गिरी हुई एक बकरी को देखा| बकरे ने उसे बाहर निकलने का उपाय सोच अपनी सीगों से मिट्टी खोद कर वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग बनाया तथा उसी मार्ग से उसे बाहर निकाला| कुएं से बाहर निकल कर बकरी उसी बकरे से सनेह करने लगी तथा उसे अपना पति बना लिया| वह बकरा बड़ा हृष्ट-पुष्ट, जवान, व्यहारकुशल , वीर्यवान तथा मैथुन में निपुण था| जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कुएं में गिरी हुई बकरी से उसका प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध चल रहा है तो उन्होंने भी उसे अपना पति बना लिया| वह उन बकरियों के साथ कामपाश में बंधकर अपनी सुधबुध खो बैठा| कुए से निकाली हुई बकरी ने जब अपने पति दूसरी बकरोयों के साथ रमण करते हुए देखा तो वह क्रोध से आग बबूला हो गयी| वह उस कामी बकरे को छोडकर बड़े दुःख से अपने पलने के पास चली गयी| वह कामी बकरा भी उसके पीछे-पीछे गया परन्तु मार्ग में उसे मना न सका| उस बकरी के मालिक को जब सारा वृतांत ज्ञात हुआ तो उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अंडकोष को काट दिया| परन्तु इससे बकरी का भी बुरा होगा यह सोचकर उसने अंडकोष पुनः जोड़ दिया| अंडकोष जुड़ जाने पर वह बकरा बहुत काल तक उस बकरी के साथ विषय भोग करता रहा परन्तु काम पिपासा से कभी तृप्त नहीं हुआ| हे देवयानी! यैसे ही मैं तुम्हारे प्रेमपाश में बंधकर अपनी आत्मा भूल गया हूँ| विषय-वासना से युक्त पुरुष को पृथ्वी के सभी यैश्वर्य, धन-धन्य मिलकर भी तृप्त नहीं कर सकते| क्योंकि विषय को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है| जैसे अग्नि में घी डालने पर वह बुझती नहीं है। बल्कि ज्यो-ज्यो घी डालते जाओ त्यों त्यों वह भड़कती जाती है| इसी प्रकार भोगों को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है कम नहीं होती| शरीर बूढा हो जाने पर भी भोग विलास की इच्छा समाप्त नहीं होती है बल्कि नित्य नई इच्छाएं जागृत हो जाती हैं| जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे शीघ्र ही भोग-वासना की तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए| मैंने हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग किया तथापि दिन प्रतिदिन भोगों की चाहत बढ़ती जा रही है| इसलिए अब मैं इनका त्याग कर ब्रह्म में चित्त लगाकर निर्द्वंद विचरण करूँगा| इस प्रकार महाराज ययाति ने अपनी पत्नी देवयानी को समझाकर पुरु को उसकी जवानी लौटा दिया तथा उससे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया| तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में तथा यदु को दक्षिण दिशा में व तुर्वसु को पश्चिम दिशा में और अनु को उत्तर दिशा में राजा बना दिया|पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर उसके सब बड़े भईयों को उसके अधीन कर स्वयँ वन को चले गए| वहां जाकर उन्होंने ऐसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए| देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गयी| महाराज ययाति के पांच पुत्र हुए जिसमे यदु और तुर्वसु महारानी देवयानी के गर्भ से तथा दुह्यु व अनु और पुरु शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुए।

पुरुरवा के पुत्र आयु

राजा आयु
राजा आयु महाराज पुरुरवा के पुत्र थे उनका जन्म अप्सरा उर्वशी के गर्भ से हुआ था। पुरुरवा के बाद वे प्रतिष्ठान राज्य के उतराधिकारी बने। महारज आयु का विवाह राहु की पुत्री बिरजा से हुआ था। उनके नहुष, क्षत्रवृद्ध, रंभ,रजि और अनेनस नामक पांच पुत्र हुए। उनके ज्येष्ठ पुत्र नाम नहुष था। ज्येष्ठ पुत्र होने कारण नहुष राज्य के उतराधिकारी बने।
आयु पुत्र महाराज नहुष
राजा नहुष महाराजा आयु के पुत्र थे उनकी पत्नी विरजा के गर्भ से छः महाबली पुत्र उत्पन्न हुए. उनके नाम इस प्रकार है- यति, ययाति, संयाति, आयाति, वियाति और कृति। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण नहुष के बाद यति प्रतिष्ठान राज्य के उत्तराधिकारी थे। किन्तु यति को राज्य की इच्छा न थी ओर वे वेराग्य को चले गये इस कारण ययाति वहाँ के राजा बने। महाराज नहुष के बारे में प्रसिद्द है। कि वे कुशल उच्चकोटि के शासनकर्ता थे। निपुण शासनकर्ता होने के कारण नहुष को कुछ समय के लिए देवताओं के राजा के रूप में इन्द्रासन पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि देवताओ के राजा इंद्र ने वृतासुर का वध कर दिया था। इस कारण इंद्र को ब्रह्म हत्या का दोष लगा। इस महादोष के प्रायश्चित के लिए वे एक सरोवर के अंदर गए और वहाँ कमल की नाली में सूक्ष्म रूप धारण करके छुप गए।इससे इंद्र का आसन खाली हो गया। देवताओ को महाराज नहुष की शासन कुशलता का ज्ञान था। ये सोचकर कि इन्द्रासन खाली न रहे इसलिए देवताओ ने मिल कर उस पर नहुष को बिठा दिया।कुछ समय तक महाराज नहुष ने तीनो लोको का शासन बड़े व्यस्थित ढंग से किया। सब जगह उनके क्रिया कलापों की प्रशंसा होने लगी। परन्तु धीरे-धीरे स्वर्ग की विलासता,नित्य सुंदर अप्सराओ के दर्शन तथा सर्वोपरि सत्ता के मद ने उनके मस्तिक को दूषित करना शुरू कर दिया। इंद्र की परम सुन्दरी साध्वी पत्नी का नाम शची था। वह बहुत सुन्दर और रूपवान थी। उसके सौन्दर्य को देखकर नहुष मोहित हो गए। वे शची को प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे। देवताओं को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने राजा को बहुत समझाया और कहा कि उनके द्वारा ऐसी चेष्टा करना अशोभनीय है।परन्तु वे नहीं माने।इन्द्राणी को वश में करने के लिए एक दिन नहुष ने ऋषियों से पालकी उठवा कर उसके भवन की और चले।पालकी उठाकर ऋषिगण मार्ग में धीरे -धीरे चल रहे थे तो नहुष क्रोधित हो कर उन्हें जल्दी-जल्दी तेज चलने को कहा। यह नजारा देखकर पालकी ढो रहे अगस्तय मुनि ने नहुष को सांप बन जाने का शाप दे दिया। उनको पालकी से उतारकर आकाश से पृथ्वी पर गिरा दिया।इस प्रकार नहुष का पतन हो गया।

बुद्धदेव के पुत्र पुरुरवा चन्द्रवंश के महान सम्राट

बुधदेव पुत्र राजा पुरुरवा ओर रानी उर्वशी का परिचय
पुरुरवा का जन्म महाराज बुध के द्वारा इला के गर्भ से हुआ। वे परम तेजस्वी,दानशील,यज्ञकरता, पराक्रम दिखानेवले, सत्यभाषी, और पवित्र विचार वाले पुरुष थे। उनका रूप अत्यंत सुंदर था। वे अपने समय मे तीनो लोको मे अनुपम यशस्वी थे | पुरुरवा की माता इला मनु की पुत्री थीं।उनको मनु से प्रतिष्ठान नामक नगर का राज्य मिला था। इला ने अपने पुत्र पुरुरवा को प्रतिष्ठान का राजा बनाया। तब से प्रतिष्ठान नगरी बहुत काल तक चंद्रवंशी राजाओ की राजधानी ऱ्ही। उर्वशी नामक अप्सरा पुरुरवा की पत्नी थी। उर्वशी कौन थी, इसका संक्षिप्त विवरण आगे की पंक्तियों में दिया गया है।
उर्वशी का परिचय :-
उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा थी। साहित्यिक ग्रंथों और पुराण आदि मेंवर्णन आता है कि उर्वशी की उत्पत्ति नारायण की जंघा से हुई और वह सौंदर्य की मूर्ति थी। पद्म पुराण के अनुसार इनका जन्म कामदेव के उरू से हुआ। श्रीमदभागवत के अनुसार वह स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा थी। कहा जाता है कि ब्रह्मा के शाप के कारण उर्वशी को मनुष्य-लोक मे आना पडा।यद्यपि शाप के कारण देवलोक छोड़कर उसको मनुष्य-लोक मे आना पडा और इससे उनका दुखी होना भी स्वाभाविक था, तथापि जबउनको ज्ञात कुआ कि पुरुष शिरोमणी पुरुरवा मूर्तिमान कामदेव के समान सुंदर है तव वह धैर्य धारण कर उनके पास चली आयी। उर्वशी के सौन्दर्य कोदेख कर राजा पुरुरवा भी हर्ष से खिल उठे। उर्वशी ने महाराज पुरुरवा को अपना पति चुना, परंतु इसके लिए उसने राजा के सामने तीन शर्तें रखीं, जो इस प्रकार हैं - "मै केवल घी खाउंगी, मैथुन के अलावा अन्य किसी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूंगी, मेरे सकाम होने पर ही आप सहवास करेंगे। मेरे द्वारा स्वर्गलोक से लाये हुये दो भेड है, मै उन्हें पुत्र के समान स्नेह करती हू। ये भेंड हमेशा मेरी पलंग के साथ बांधे रहेंगे और आपको इनकी रक्षा करनी पडेगी। जब तक आप इन शर्तो का पालन करते रहेंगे तब तक ही मै आपके पास रहूंगी।" स्वर्ग की उस अप्सरा के सौन्दर्य को देखकर से राजा इतना मुग्ध हो गया था कि उसकी हर बात उसे माननी पडी। इस प्रकार वह श्रेष्ठ अप्सरा महाराज पुरुरवा के यहां रहने लगी। उर्वशी कोराजा मे आसक्त होकर रहते हुये उनसठ वर्ष बीत गये, तब गन्धर्वो को उसकी चिंता सताने लगी। उर्वशी को देवताओ मे फिर किस प्रकार लाया जाय-वे इसका उपाय सोचने लगे। तब विश्वावसु नामक एक गंधर्व ने कहा- " मै उर्वशी और राजा पुरुरवा के बीच हुये अनुबंध को भली-भाँति जानता हूँ । राजा की प्रतिज्ञा भंग होने पर उर्वशी उनको छोड देगी। राजा की प्रतिज्ञा तोडने का उपाय भी मै जनता हू।" सब गन्धर्वों की सहमति से इस काम को सिद्ध करने के लिये वह कुछ सहायको को साथ लेकर वह राजा के नगर प्रतिष्ठानपुर गया। गन्धर्वों ने वहां रात के अंधेरे मे उर्वशी की पलंग से बंधे एक भेड को चुरा लिया। उर्वशी को इसका पता चला तो उसने राजा से कहा-"राजन! मेरे बच्चे को चोर उठा ले गये।" रात का अंधेरा था और राजा निःवस्त्र लेटा था। वह यह सोचकर नही उठा कि उर्वशी उसे नंगा देख लेगी और उसकी प्रतिज्ञा भंग हो जयेगी। थोडी देर बाद गन्धर्वो ने उर्वशी का दूसरा भेड भी चुरा लिया। दूसरे भेड के चुराये जाने पर उसने राजा से कहा - "राजन! मेरे दोनो पुत्रचोरी हो गये और आप कायरो की भान्ति सोये पडे हैं. उनको बचाने का बिलकुल प्रयास नहीं किया। धिक्कार है आपके पौरुष को '" उर्वशी के इस प्रकार कटु वचन सुनकर राजा विस्तर से उठकर उन भेडो को छुडाने के लिये दौड पड़ा। गंधर्व तो यही चाहते थे। उनके लिये उचित अवसर था। उन्होने अपनी शक्ति सेभारी बिजली चमका कर रोशनी कर दी जिससे वह विशाल भवन एक साथ प्रकाशित हो गया। तब उर्वशी ने राजा का नंगा शरीर देख लिया। राजा को नंगा देखते ही उर्वशी शाप मुक्त हो गई और अंतर्धान हो वहाँ से चली गई. राजा भेडो को छुडा कर वापस आया और जबमहल मे घुसा तो उसे वहाँ उर्वशी नही मिली। इससे राजा व्याकुल हो गया और उर्वशी की खोज मे वह पृथ्वी पर जगह-जगह भटकने लगा। बहुत समय बीत जाने के बाद, एक दिन उसने उर्वशी को हैमवती नामावली पुष्करिडी मे स्नान करते हुए देखा। उस समय वह सखियो के साथ क्रीडा मग्न थी और प्रसन्नता से झूम रही थी। उसको देखकर राजा विलाप करने लगा। जब उर्वशी ने राजा को इस प्रकार विलाप करते देखा तो वह जल से बहार आयी और उससे कहा-' प्रभो! मै आपके द्वारा गर्भवती हू। निश्चय ही मेरे गर्भ से आपको संतान की प्राप्ति होगी। आपने अपना वचन नहीं निभाया। इसलिए मैं शापमुक्त हो गई। मै अब आपके साथ नहीं रह सकती। लेकिनआपकी पत्नी होने के नाते साल में एकरात्रि मै आपके साथ रहूंगी। हे राजन! इस प्रकार प्रतिवर्ष मेरे गर्भ से आपके पुत्र उत्पन्न होगे।" राजा प्रसन्न हो गया और वहां से अपनेमहल वापस आगया। एक वर्ष बीतने पर उर्वशी उसके पास फिर आयी। महायशस्वी पुरुरवा उसके साथ एक रात्रि रहे। यहक्रम कई वर्षो तक अविरल चालता रहा। उर्वशी प्रतिवर्ष एक रात्रि के लियेराजा के पास आती रही। कई वर्ष बीत जाने के बाद उर्वशी ने राजा से कहा-" हे राजन! गंधर्व आपको वर देना चाहते है। इसलिए आप मेरे साथ स्वर्गलोक चलो। आप उनसे 'गन्धर्वो की समानता' वाला वरदान मांग लीजिये। गन्धर्वों की समानता प्राप्त कर लेने के बाद आप मेरे साथ स्वर्ग लोक में रह सकोगे" राजा ने वेसा ही किया और गन्धर्वो के समक्ष जाकर उनकी 'समता' का वरदान माँगा। "एवमवस्तु" कहते हुये गन्धर्वो ने एक थाली मे अग्नि लाकर पुरुरवा को दिया और कहा कि इस अग्नि से यज्ञ करने के फलस्वरूप आप हमारे लोक मे आ जाओगे। राजा अग्नि लेकर अपने नगर के ओर चल पडा। मार्ग मे एक स्थान पर अग्नि को रख कर अपने पुत्रो को साथ लेकर वह घरआ गया। कुछ दिन बाद राजा फिर वन मे अग्नि लेने गया । परंतु वहाँ उसको अग्नि नही मिली।. अग्नि के स्थान पर पीपल के एक वृक्ष को खडा देखाउसने यह बात गन्धर्वो को बताई तो गन्धर्वो ने कहा- राजन तुम पीपल की अरणी बनाकर अग्नि उत्पन्न करो।
महाराज पुरुरवा ने वेसा ही किया।पीपल की अरणी से उत्पन्न अग्नि करके उससे यज्ञ किया और गन्धर्वो की समानता प्राप्त की। उसके बाद वह गंधर्व लोक पहुंच गया।कई ग्रंथो मे वर्णन आता है कि महाराज पुरुरवा ने अरणी के माध्यम से अग्नि प्रज्वलित करने की कला सीखी। यह कला उस समय तक किसी अन्य व्यक्ति को ज्ञात नहीं थी।
महाराज पुरुरवा ने अपने देश भारत मे इस कला को प्रचलित किया। पुरुरवा के छः पुत्र हुये. उनके नाम इस प्रकार है। (१) आयु (२) धीमान (३) अमावसु (४) विश्वासु (५) शतायु और (६)श्रुतायु सभी ग्रंथ इनके पुत्रो की संख्या के बारे मे एक मत नही है। कई ग्रंथो मे यह संख्या सात बतायी गई तो कईयो मे नौ। पुरुरवा के एक पुत्र का नाम आयु था। वह जयेष्ट होने के साथ श्रेष्ठ भी था।पुरुरवा के बाद आयु को प्रतिष्ठान की गद्दी प्राप्त हुई। उसके वंशजों का राज्य बहुत काल तक प्रतिष्ठान मे चलता रहा।
आयु के वंशज गौरवशाली हुये।आयु के नहुष नाम का पुत्र हुआ।नहुष के ययाति नामक पुत्र हुआ।
राजा आयु के पुत्र नहुष एवँ राजा नहुष के पुत्र एवँ आयु के प्रपोत्र राजा

दुर्वाषा ऋषि जिन्होंने यादवों का नाश होने का श्राप दिया था

दुर्वासा ॠषि
ब्रह्मा के पुत्र अत्रि ने सौ वर्ष तक ऋष्यमूक पर्वत पर अपनी पत्नी अनुसूया सहित तपस्या की।उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने उन्हें एक-एक पुत्र प्रदान किया।ब्रह्मा के अंश से चन्द्र,विष्णु के अंश से दत्तात्रेय तथा शिव के अंश से दुर्वासा का जन्म हुआ। दुर्वासा ने जीवन-भर भक्तों की परीक्षा ली।
एक बार दुर्वासा मुनि अपने दस हजार शिष्यों के साथ दुर्योधन के यहाँ पहुंचे। दुर्योधन ने उन्हें आतिथ्य से प्रसन्न करके वरदान मांगा कि वे अपने शिष्यों सहित वनवासी युधिष्ठिर का आतिथ्य ग्रहण करें। वे उनके पास तब जायें जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हों। दुर्योधन ने यह कामना प्रकट की थी क्योंकि उसे मालूम था कि उसके भोजन कर लेने के उपरांत बटलोई में कुछ भी शेष नहीं होगा और दुर्वासा उसे शाप देंगे। दुर्वासा ऐसे ही अवसर पर शिष्यों सहित पांडवों के पास पहुंचे तथा उन्हें रसोई बनाने का आदेश देकर स्नान करने चले गये। धर्म संकट में पड़कर द्रौपदी ने कृष्ण का स्मरण किया। कृष्ण ने उसकी बटलोई में लगे हुए जरा से साग को खा लिया तथा कहा-'इस साग से संपूर्ण विश्व के आत्मा, यज्ञ भोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्री हरि तृप्त तथा संतुष्ट हों। उनके ऐसा करते ही दुर्वासा को अपने शिष्यों सहित तृप्ति के डकार आने लगे। वे लोग यह सोचकर कि पांडव गण अपनी बनाई रसोई को व्यर्थ जाता देख रुष्ट होंगे दूर भाग गये।
एक बार दुर्वासा यह कहकर कि वे अत्यंत क्रोधी हैं।कौन उनका आतिथ्य करेगा नगर में चक्कर लगा रहे थे। उनके वस्त्र फटे हुए थे। कृष्ण ने उन्हें अतिथि-रूप में आमन्त्रित किया। उन्होंने अनेक प्रकार से कृष्ण के स्वभाव की परीक्षा ली। दुर्वासा कभी शैया आभूषित कुमारी इत्यादि समस्त वस्तुओं को भस्म कर देते, कभी दस हज़ार लोगों के बराबर खाते तो कभी कुछ भी न खाते।एक दिन खीर जूठी करके उन्होंने कृष्ण को आदेश दिया कि वे अपने और रुक्मिणी के अंगों पर लेप कर दें। फिर रुक्मिणी को रथ में जोतकर चाबुक मारते हुए बाहर निकलें। थोड़ी दूर चलकर रुक्मिणी लड़खड़ाकर गिर गयी। दुर्वासा क्रोध से पागल होकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। कृष्ण ने उनके पीछे-पीछे जाकर उन्हें रोकने का प्रयास किया तो दुर्वासा प्रसन्न हो गये तथा कृष्ण को क्रोध विहीन जानकर उन्होंने कहा सृष्टि का जब तक और जितना अनुराग अन्न में रहेगा उतना ही तुममें भी रहेगा। तुम्हारी जितनी वस्तुएं मैंने तोड़ीं या जलायी हैं। सभी तुम्हें पूर्ववत मिल जायेंगी।
एक बार द्रौपदी नदी में स्नान कर रही थी। कुछ दूर पर दुर्वासा भी स्नान कर रहे थे। दुर्वासा का अधोवस्त्र जल में बह गया। वे बाहर नहीं निकल पा रहे थे। द्रौपदी ने अपनी साड़ी में से थोड़ा-सा कपड़ फाड़कर उनको दिया।फलस्वरूप उन्होंने द्रौपदी को वर दिया कि उसकी लज्जा पर कभी आंच नहीं आयेगी।
साभार टिप्पणी और संदर्भ 1. ↑महाभारत, वनपर्व, अध्याय 262 से 263 तक,दान धर्मपर्व, अध्याय 159 2. ↑शिव पुराण, 7 । 25-26 ।-

दतात्रेय

दत्तात्रेय
दत्तात्रेय शीघ्र कृपा करने वाले देव की साक्षात मूर्ति कहे जाते हैं। अत्रि ऋषि की पत्नि माता अनुसूया पर प्रसन्न होकर तीनों देवों- ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने उन्हें वरदान दिया।ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ। इन्हीं के आविर्भाव की तिथि ' दत्तात्रेय जयंती' कहलाती है। परम भक्त वत्सल दत्तात्रेय, भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुँच जाते हैं। इसीलिए इन्हें 'स्मृतिगामी' तथा 'स्मृतिमात्रानुगन्ता' भी कहा गया है।ये विद्या के परम आचार्य हैं। भगवान दत्तजी के नाम पर 'दत्त संप्रदाय' दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है।
अन्य तथ्य
एक बार वैदिक कर्मों का, धर्म का तथा वर्ण व्यवस्था का लोप हो गया था। उस समय दत्तात्रेय ने इन सबका पुनरूद्धार किया था।
हैहयराज अर्जुन ने अपनी सेवाओं से उन्हें प्रसन्न करके चार वर प्राप्त किये थे 1.बलवान, सत्यवादी, मनस्वी, अदोषदर्शी तथा सहस्त्र भुजाओं वाला बनने का। 2.जरायुज तथा अंडज जीवों के साथ-साथ समस्त चराचर जगत का शासन करने के सामर्थ्य का। 3. देवता, ऋषियों, ब्राह्मणों आदि का यजन करने तथा शत्रुओं का संहार कर पाने का। 4.इहलोक, स्वर्गलोक और परलोक विख्यात अनुपम पुरुष के हाथों मारे जाने का।
कार्तवीर्य अर्जुन (कृतवीर्य का ज्येष्ठ पुत्र) के द्वारा दत्तात्रेय ने लाखों वर्षों तक लोक कल्याण करवाया। कार्तवीर्य अर्जुन, पुण्यात्मा, प्रजा का रक्षक तथा पालक था। जब वह समुद्र में चलता था तब उसके कपड़े भीगते नहीं थे। उत्तरोत्तर वीरता के प्रमाद से उसका पतन हुआ तथा उसका संहार परशुराम-रूपी अवतार ने किया। कृतवीर्य हैहयराज की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र अर्जुन का राज्याभिषेक होने का अवसर आया तो अर्जुन ने राज्यभार ग्रहण करने के प्रति उदासीनता व्यक्त की। उसने कहा कि प्रजा का हर व्यक्ति अपनी आय का बारहवां भाग इसलिए राजा को देता है कि राजा उसकी सुरक्षा करे। किंतु अनेक बार उसे अपनी सुरक्षा के लिए और उपायों का प्रयोग भी करना पड़ता हैं।अत: राजा का नरक में जाना अवश्यंभावी हो जाता है। ऐसे राज्य को ग्रहण करने से क्या लाभ? उनकी बात सुनकर गर्ग मुनि ने कहा हे राजन तुम्हें दत्तात्रेय का आश्रय लेना चाहिए। क्योंकि उनके रूप में विष्णु ने अवतार लिया है।
एक बार देवता गण दैत्यों से हारकर बृहस्पति की शरण में गये।बृहस्पति ने उन्हें गर्ग के पास भेजा।वे लक्ष्मी (अपनी पत्नी) सहित आश्रम में विराजमान थे। उन्होंने दानवों को वहां जाने के लिए कहा। देवताओं ने दानवों को युद्ध के लिए ललकारा फिर दत्तात्रेय के आश्रम में शरण ली। जब दैत्य आश्रम में पहुंचे तो लक्ष्मी का सौंदर्य देखकर आसक्त हो गये। युद्ध की बात भुलाकर वे लोग लक्ष्मी को पालकी में बैठाकर अपने मस्तक से उनका वहन करते हुए चल दिये। पर नारी का स्पर्श करने के कारण उनका तेज नष्ट हो गया। दत्तात्रेय की प्रेरणा से देवताओं ने युद्ध करके उन्हें हरा दिया। दत्तात्रेय की पत्नी लक्ष्मी पुन: उनके पास पहुंच गयी।अर्जुन ने उनके प्रभाव विषयक कथा सुनी तो दत्तात्रेय के आश्रम में गये। अपनी सेवा से प्रसन्न कर उन्होंने अनेक वर प्राप्त किये। मुख्य रूप से उन्होंने प्रजा का न्यायपूर्वक पालन तथा युद्धक्षेत्र में एक सहस्त्र हाथ मांगे। साथ ही यह वर भी प्राप्त किया कि कुमार्ग पर चलते ही उन्हें सदैव कोई उपदेशक मिलेगा। तदनंतर अर्जुन का राज्याभिषेक हुआ तथा उसने चिरकाल तक न्यायपूर्वक राज्य-कार्य संपन्न किया।
साभार टिप्पणी और संदर्भ 1. ↑महाभारत, सभापर्व, अध्याय 38 2. ↑मार्कण्डेय पुराण, 17

क्षत्रिय बुध और इला

बुध ओर ईला बुध चन्द्रमा का पुत्र था। वह बहुत रूपवान और शक्तिशाली था। उनका जन्म तारा की कोख से हुआ। तारा देवताओं के गुरु वृहस्पति की पत्नी थी। एक बार चन्द्रमा ने, जो महर्षि अत्रि के पुत्र थे, वृहस्पति की इस पत्नी का हरण करके अपनी पत्नी बना लिया। इंद्रआदि देवों के समझाने के उपरान्त जब चंद्रमा ने तारा को नहीं लौटाया तो इंद्र सेना लेकर युद्ध के लिए आमादा हो गए। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे। वे देवगुरु वृहस्पति से द्वेष रखते थे। इस कारण चंद्रमा की सहायता के लिए अपनी विशाल एवं शक्तिशाली सेना लेकर इंद्र से युद्ध करने के उद्देश्य से शुक्राचार्य भी मैदान में आ डेट। परिणाम स्वरुप तारा के लिए इस देव-असुर संग्राम आरम्भ हो गया और धीरे-धीरे उसने भयंकर रूप धारण लिया और चारो तरफ भय व्याप्त हो गया। तब लोग बीच-बचाव करने के लिए ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्मा जी इस संग्राम को समाप्त करवाने में सफल हुए। उनके समझाने पर चंद्रमा ने तारा को लौटा दिया जिससे वह पुनः अपने पति वृहस्पति के पास आगयी। इस दौरान तारा गर्भवती हो गई थी। वृहस्पति को जब यह ज्ञात हुआ कि उसकी पत्नी दुसरे का गर्भ धारण करके आई है तब वह बहुत क्रोधित हुआ। उसने तारा को कठोर शब्दों में बहुत भला-बुरा कहा और आज्ञा देते हुए उससेकहा - "मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है तुम इसे जल्द दूर करो।" तब तारा ने झाड़ियों के मध्य जाकर गर्भ को गिरा दिया। लेकिन जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में गिराया वह बहुत सुन्दर रूपवान तेजस्वी बालक निकला। उसके सुन्दर रूप को देखकर वृहस्पति और चंद्रमा दोनों ललचा गए और दोनों ने अपना पुत्र बनाना चाहा। इससे दोनों में विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ गया की उनको बीच बचाव के लिए पुनः देवताओं की शरण में जाना पड़ा। देवताओं ने तारा से यह जानने का भरसक प्रयत्न किया कि उसके गर्भ से उत्पन्न यह बालक किसका है,किन्तु लज्जावश तारा चुप-चाप खड़ी रही और कुछ बोल नहीं सकी। ब्रह्मा ने भी उसको बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं बताया। देवतावो के के बहुत पूछने पर भी तारा ने अपना मुंह नहीं खोला। उसके गर्भ से उत्पन्न बालक भी उस समय वहां मौजूद था। अपनी माता के इस आचरण से वह क्रोधित हो गया। क्रोध भरे कठोर शब्दों में डांटते हुए उसने अपनी माता से कहा -" तुम शीघ्र सारी सच्चाईबता दो नहीं तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगा।" बालक के मुख से यह शब्द सुनकर सभी अचंभित रह गए। शाप देने के बाद तारा का अहित होगा -यह सोच करब्रह्मा जी उस बालक को ऐसा करने से रोक दिया और उसकी माता को पुनः समझाने का प्रयास किया। इस बीच अपनेपुत्र के फटकारने से तारा भयभीत हो चुकी थी। इसलिए उसने ब्रह्मा की बात मान ली और सब कुछ सच सच बता दिया। उसने कहा - "मेरे गर्भ से उत्पन्न यह बालक चंद्रमा का पुत्र है।" अपने पुत्र की बुद्धिमत्ता देखकर चंद्रमा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंनेउसकी बहुत प्रशंसा की और गले लगाया। वे बोले -"वत्स! तुम बहुत बुद्धिमान हो इसलिए मैं तुम्हारा नाम 'बुध' रखताहूँ" तब से वह बालक चन्द्रमा का पुत्र कहलाया और बुध के नाम से ख्याति प्राप्त की। बुध को चंद्रमा का पुत्र माना गया इसलिए वे चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। यदि उनको महर्षि वृहस्पति का पुत्र माना जाता तो वे ब्रह्मण कहलाते। बुध का स्वरुप अत्यंत सुंदर और मनमोहक था। इसी कारण महर्षि वृहस्पति तारा को गर्भवती देख कर पहले तो क्रोधित हो गए, परन्तु जन्म के बाद जब देखा कि यहतो सुन्दर सुवर्णमय रूपवान बालक है तब वह मुग्ध हो गए तथा उसे अपना पुत्र बनाना चाहा। बुध का विवाह सूर्यवंशी राजकुमारी इला से हुआ था। इला का जीवन परिचय नीचे की पक्तियों में देखें। इला ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में ज्येष्ठ महर्षि मरीचि थे। मरीचि केएक पुत्र का नाम कश्यप था। कश्यप के पुत्र का नाम विवस्वान था।विवस्वान का अर्थ सूर्य है।विवस्वान(सूर्य) के मनु नामक एक पुत्र हुआ इला इसी मनु की पुत्री थी। मनु की अनेक संताने थीं, किन्तु उनमें इक्ष्वाकु नामक पुत्र और इला नामक पुत्री मुख्य माने जाते हैं। इक्ष्वाकु के वंशज सूर्यवंशी क्षत्रिय और उसकी बहन इला के वंशज चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। सूर्य वंश में भगवान श्रीराम का और चन्द्रवंश में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। इला का जन्म सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ और विवाह चंद्रवशी क्षत्रिय कुल में बुध से हुआ । बुध चंद्रमा का पुत्र था। इसी कुल में आगे चलकर यदु का जन्म हुआ और उनके वंशज यदुवँशी क्षत्रिय कहलाये ।पुराण आदि ग्रंथों में वर्णन आता है कि इला पहले सुदुयम्न नामक पुत्र था। एक दिन वह शिकार करते हुए मेरु पर्वत की तलहटी में जा पहुंचा | भगवान शंकर के शाप के कारण उस वन में जाने वाला हर पुरुष स्त्री हो जाता था। इस कारण सुदुयम्न भी अपने अनुचरों सहित स्त्री हो कर वन में विचरने लगा । उसी समय शक्तिशाली बुध ने देखा कि मेरे आश्रम के पास बहुत से स्त्रियों से घिरी हुई एक रूपवान रमणी विचर रही है। उन्होंने इच्छा जाहिर की क़ि यह सुन्दरी मुझे मिल जाये। उस सुन्दरी ने भी बुध को अपना पति बनाने की इच्छा प्रकट की। इस प्रकार बुध ने इला से विवाह कर लिया और कुछ समय बाद उनके परुरवा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ऐसा वर्णन भी आता है क़ि गुरु वशिष्ठ द्वारा भगवान शंकर की आराधना करने पर भगवान् शंकर ने सुद्युम्न को एक महीना पुरुष व एक महीना स्त्री रहने का वर दिया| बुध चन्द्र वंशी क्षत्रिय थे बुध के पुत्र का नाम पुरुरवा था। पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए। यदु से यदुवंश चला। यदु की कई पीढ़ियों के बाद यदु कुल में माता देवकी के गर्भ से भगवान कृष्ण ने मानव रूप में अवतार लिया

चन्द्रमा जिनसे चन्द्रवंश क्षत्रियों की उत्पत्ति हुयी

चन्द्रदेव चन्द्रमा से मनुष्य बहुत प्रभावित रहा है। जीवन के हर पहलू में चन्द्रमा को उसने स्वयं से जोड़ कर रखा। मनुष्य ने विभिन्न लक्षणों के आधार पर चन्द्रमा के बहुत से वैकल्पिक नाम तो रखे ही साथ ही विशिष्ट कुल-परंपरा से भी चन्द्रमा को जोड़ा। चंद्रवंशी ब्राह्मणों-क्षत्रियों के कई गोत्र होते हैं उनमें चंद्र से जुड़े कुछ गोत्र नाम हैं जैसे चंद्रवंशी। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चंद्रमा को तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है। जिसका नाम 'सोम' है। दक्ष प्रजापति की सत्ताईस पुत्रियां थीं जिनके नाम पर सत्ताईस नक्षत्रों के नाम पड़े हैं। ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं। चन्द्रमा का इनमें से रोहिणी के प्रति विशेष अनुराग था। चन्द्रमा के इस व्यवहार से अन्य पत्नियां दुखी हुईं तो दक्ष ने उसे शाप दिया कि वह क्षयग्रस्त हो जाए जिसकी वजह से पृथ्वी की वनस्पतियां भी क्षीण हो गईं। विष्णु के बीच में पड़ने पर समुद्र मंथन से चन्द्रमा का उद्धार हुआ और क्षय की अवधि पाक्षिक हो गई। एक अन्य कथा के अनुसार चन्द्रमा ने वृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण किया था जिससे उसे बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो बाद में क्षत्रियों के चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ। इस वंश के राजा खुद को चंद्रवंशी कहते थे। अन्य नाम इसी तरह चंद्र से जुड़ा एक अन्य नाम सोमवंशी भी है। चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम भी सोम माना जाता है जिसका प्रयाग पर शासन था। ब्राह्मणों में एक उपनाम होता है आत्रेय अर्थात अत्रि से संबंधित या अत्रि की संतान। चूंकि चंद्र अत्रि ऋषि की संतान थे इसलिए आत्रेय भी चंद्रवंशी ही हुए। चंद्रवंशियों का एक अन्य उपनाम अत्रिज भी होता है जिसका अर्थ हुआ अत्रि से जन्मा यानी चंद्र। एक अन्य गोत्र होता है चांद्रात अर्थात चंद्र से संबंधित। अत्रि को ब्रह्मा के नेत्रों से उत्पन्न बताया गया है। इसी तरह अत्रि पुत्र सोम या चन्द्रमा को भी अत्रि के नेत्रों से जन्मा बताया गया है इसलिए उसे अत्रिनेत्रज भी कहा जाता है। चन्द्रमा का एक अन्य नाम है सुधाकर या सुधांशु। इस नाम में भी जल तत्त्व की उपस्थिति नज़र आ रही है जो चन्द्रमा की पहचान है। सुधा का अर्थ भी अमृत, मधुर तरल ही होता है। इसका अर्थ जल भी है। पृथ्वी पर अगर अमृत है तो वह जल ही है। सुधा को देवताओं का पेय कहा गया है जो अमृत ही होता है। सोम का दूसरा नाम भी अमृत और जल ही है। सुधांशु का अर्थ हुआ जिसकी किरणें अमृत समान हैं। सुधाकर यानी अमृत मय करने वाला। सुधा का एक अर्थ श्वेत-धवल-उज्ज्वल भी होता है। चांदनी ऐसी ही होती है। सुधा चूने की सफ़ेदी या ईंट को भी कहते हैं। सुधा यानी जल, आर्द्रता, शीतलता का भंडार होने की वजह से इसका एक नाम सुधानिधि भी है। रात्रि को प्रकाशित करने की वजह से इसका एक नाम निशापति भी है।
चंद्रमा चंद्रमा अत्रि मुनि का पुत्र था। चन्द्रमा को ब्रह्मा का अंशावतार भी माना जाता है। प्रजापति ब्रह्मा ने उन्हें औषधियों का स्वामी बनाया। चंद्रमा ने अपने राज्य की महिमा बढ़ाने के लिए एक बार राजसूय यज्ञ किया।तत्पश्चात वे इतनामदोन्मत होगये कि देवताओं के गुरु वृहस्पति कीतारा नामक सुंदर पत्नी का हरण कर लिया। देव ऋषि वृहस्पति ने अपनी पत्नी को पुनः प्राप्त करने के बहुतप्रयास किये किन्तु सफल नहीं हुए।तब बीच बचाव के उद्देश्य से वे देवताओं के राजा इंद्र के पास गए। देवेन्द्र ने चंद्रमा को समझाते हुएतारा को लौटाने के लिए कहा किन्तु वेनहीं माने। तदोपरांत ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं ने भी उनको बहुत समझाया. परन्तु चंद्रमा ने वृहस्पति की पत्नी को लौटने से इंकार कर दिया. इस पर देवराज इंद्र सेना लेकर चंद्रमा से लड़ने को आमादा हो गए। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे। वेदेवगुरु वृहस्पति से द्वेष मानते थे जिस कारण चंद्रमा की सहायता के लिए सेना लेकर वे मैदान में आ डेट। शुक्राचार्य की सेना में जम्भ, कुम्भजैसे भयंकर दैत्य शामिल थे। तारा के लिए देवताओं और असुरों में घोर संग्राम छिड़ गया। देवासुर संग्राम इतना भयंकर था कि उससे संसार के समस्त प्राणी क्षुब्ध हो गए। वे सब इकट्ठे होकर ब्रह्मा जी की शरण में गए। तब भगवान ब्रह्माजी ने बीच-बचावकरते हुए शुक्र, रूद्र, देव, दानव सब में समझौता करा दिया। तारा पुनः देवऋषि वृहस्पति को मिल गयी। तारा उस समय गर्भवती थी। उसको गर्भावस्था में देख वृहस्पति क्रोधित हो गए और धमकाते हुए कहा -"मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है, इसे शीघ्र दूर करो।" . वृहस्पति के ऐसा कहने पर तारा ने झाड़ियों के मध्य जाकर गर्भ को गिरा दिया। जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में त्यागा वह अत्यंत सुंदर तेजधारी बालक निकला। वह इतना रूपवान था कि उसके समक्ष समस्त देवताओं का तेज फीका प्रतीत होता था। उस सुंदर एवं तेजधारी बालक को देख कर चंदमा और वृहस्पति दोनों ने अपना पुत्र बनाना चाहा। उसको पाने कीउन दोनों की इस उत्सुकता को देख कर देवताओं के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। तब वे तारा से पूछने लगे-"देवी! सत्य बताओ तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न यह पुत्र किसका है?" किन्तुलज्जावश तारा चुपचाप यथावत खड़ी रही और कुछ बोल नहीं सकी। देवताओं के बार-बार पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया. इस पर तारा का वह बालक कुपित होकर कहने लगा- " शीघ्र पूर्ण सत्य वर्णन करो नहीं तो मै तुम्हे भयंकर शाप दे दूंगा।" ब्रह्मा जी ने उस बालक को शाप देने से मना किया और स्वयं तारा से सच्चाई पूछने लगे। तब तारा बोली - "यह बालक चन्द्र्मा का पुत्र है।" तारा के मुख से यह शब्द सुनकर चंद्रमा बहुत प्रसन्न हुए और उस बालक को गले लगाते हुए बोले- "अति उत्तम वत्स! तुम बहुत बुद्धिमान हो इस लिए मैं तुम्हारा नाम "बुध" रखता हूँ।" इस प्रकार चंद्रमा का यह पुत्र बुध के नाम से विख्यात हुआ।